Thursday 18 September 2014

एक कविता माँ के लिए

        माँ
मै जब भी घीरा होता हू
इस दुनिया की भीड में
पाता हूं तुम्हें आस पास
हाथों में फटी पुरानी आंचल लिए
मै जब जशने महफ़िल में होता हू
तालियों की गढ़गढ़हत में
पाता हू तुम्हे आस पास
इक पुरानी बर्तन में काजल लिए
जब भी मेरी बिगड़ जाती है कोई बात
हो जाता हूँ रूष्ट अपने आप से
पाता हूँ तुम्हे आस पास
होसला दिलाने वाले कहानियों के दो बाक्य लिये
दीवाली के दीपों में होली के रंगों में
इन मौसमों में जब भूल जाता हूँ खुद को
तभी देखता हूँ तुम्हे आस पास
आधी सी मिठाई और इक पिचकारी लिए
मै चाहता हूँ हो जाऊ तुमसे दूर
तेरी शंकाओं चिन्ताओ चिंताओं को करूँ निर्मूल
मै हो गया हूँ बड़ा ऐसा दिलाऊ तुम्हे विस्वास
पर पाता हूँ फ़ीर भी तुम्हे आस पास
झूठी डांट इक ममता की पनाह लिये
आज सब कुछ  पाकर भी अधुरा हूँ
महफ़िल मिली है मुझे पर तन्हा हूँ
तुम्हे महसूस कराना चाहता हूँ
तेरे बेटे की पहचान
पर माँ नहीं पाता हूँ तुम्हे आस पास
तड़प जाता हूँ तेरे गोद में सिर रखने के लिए

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