Saturday 20 September 2014

माँ का दर्द

माँ का दर्द
माँ थी सोई निश्चिन्ता  में
अपने प्यारे बच्चे की आने की आतुरता में
अचानक इक आवाज सी आई
माँ घबराई आस पास किसी को ना पाई प
पर बह हो गयी स्तब्ध
आवाज थी उस भूर्ण की जो अब तक थी निशब्द
आनंदित होके माँ ने पुछा क्या हो गयी पूरी आने की तयारी?
या कोई शंसय है मन में या बात कोई बिगड़ सी आई
करुण दर्द से चीख उठी वह
अन्सुअन से फिर भीग गयी वह
बोली माँ मै तेरे उदर में पलती हुई हूँ तेरी धानी
ना आना इस देश में मुझको मैंने अब यह है ठानी
हो सके तो करा लो अपना गर्वपात
जुर्म नहीं यह मै कहती हूँ ना होगी किसी के विचारों का तुशरघात
माँ बोली क्या है तेरे भय का कारण
यह जग तो अलोलिक है यँहा है हर दुःख का निवारण
यंहां तो होता है स्त्रियों का सम्मान
कल्पना इंदिरा लक्ष्मीबाई का है यंहां बहुत ही मान
स्त्री माँ है बेटी है बहन है ऐसा है हमारा सिधांत
तू डर मत तुम तो जननी  रक्षणी हो कर दोगी हर दुःख का अंत
पर लाडो के थे अपने मत
माँ से बोली माँ तू रो मत
मेरे है कुछ सवाल
पहले दे दे तू इसका जवाब
मै आउंगी इस धरा पर तो क्या नाम रखोगी मेरा
निर्भया दामिनी या मलाला जो भी हो ख्याल में तेरा
तू दे मेरी रक्षा और सुरक्षा का वादा
पर खुद अबला तू मुझे क्या दोगी
दुःख तेरे है मुझसे ज्यादा
ना कोई पीता ना कोई भाई ना है कोई प्रेमी
इस जग के सारे नाते रिश्ते हो गये है अधर्मी
संतो की भूमि भारत को कहा था जाता
पर क्या ऐसे संत बन सकते है हमारे चरित्र के निर्माता
हो गई है तेरी लाडो बस एक भोग विलास की वास्तु
कभी जलाई कभी रोंधि जाउंगी मै
फिर भी ये कपटी दुराचारी संत कहेंगे तथास्तु
नहीं देखना तेरे इस जग को हो गई है मुझे घ्रीना
ना बन मेरी जननी तू अपने पास ही रख अपनी करुणा
जननी भी हो गई थी निरुत्तर
भीग गया था उनका आंचल
सपने को बस सोच कर

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