Friday, 14 December 2012

भारत में बाल मजदूरी

बाल श्रम की समाया हर युग में किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है | भारत के कृषि समाज में बच्चे कृषि व पारंपरिक व्यवसाय करते हैं व मदद करते हुए काम सीखते थे | औद्योगीकरण के बढ़ने के साथ ही बाल श्रम का स्वरूप भी बदला | पारिवारिक व्यवसाय के बंधन टूटते गए और बच्चों को भी एक स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में अपने नियोक्ता के पास मजदूरी ले लिए जाना पड़ा | उसे अपनी समस्याओं से खुद ही जूझना पड़ा तथा काम के स्थान पर अभिभावकों के संरक्षण से वंचित भी रहना पड़ा |

कामगार परिवारों की "जितने हाथ उतने काम" वाली मानसिकता ने भी बाल श्रम को बढ़ावा दिया है | यह मानसिकता बेहद घातक है और विकास की गति को पीछे ले जाती है | श्रमिक परिवार की इस मानसिकता ने भी बाल श्रम को बढ़ावा दिया है | बाल श्रमिक समाज के एक उपेक्षित अंग है, क्योंकि इन्हें स्कूलों में में पढ़ने के स्थान पर रोजी के लिए विवश होना पड़ता है | 


बाल श्रम भारत की अन्य समस्याओं में एक कठिन समस्या है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है की भारत का भविष्य जो किसी कस्बे व नगर, महानगर की किन्ही बस्तियों में जन्म लेकर जीवन के ६ से ८ वर्ष की दहलीज को पार करते ही अपने पेट की चिंता में व सुबह शाम के पेट भरने की समस्या से बाध्य होकर उन बच्चों को चाय की दुकानों, हथकरघों और फुटपाथों

पर काम करते देखा जा सकता है | बच्चों को रोजगार ढूँढने के जो भी कारण हो प्रायः बालक ऐसी स्थितियों में काम करते हैं जो उनके स्वास्थ, कल्याण तथा विकास के लिए हानिकारक है जिससे अधिकतर बाल श्रमिक कभी स्कूल नहीं गए होते हैं या उन्हें पढाई बीच में ही छोड़कर रोजगार में लग जाना पड़ता है | कामकाजी बालक शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल प्राप्त करने से वंचित रह जाते है | जबकि यह आजीविका, पोषण तथा आर्थिक विकास के लिए पूर्व अपेक्षित है, चूँकि बालश्रम एक व्यापक समस्या है, इसलिए ये आम जनता, मजदूर संघों, समाज सेवा संगठनो, सरकार के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है |

1 comment:

  1. आपकी यह बेहतरीन रचना शुकरवार यानी 28/12/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर लिंक की जाएगी…
    इस संदर्भ में आप के सुझाव का स्वागत है।

    सूचनार्थ,

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