- खिलौना शव्द जेहन में आते ही हम अपने उस निश्छल निश्वार्थ अतीत में खो जाते है जिसे बचपन कहते है खिलौनों के लिए पागलपन या खिलोनो के लिए बाप से चिरौरी प्रतिशत को स्मरण होगा खिलौना तो ऐसे बस एक बाल मनोरंजन का साधन मात्र लगता है कहिये तो इसके बहाने बचे थोड़ी देर तक माँ बाप को भूल कर दुनिया में मस्त मगन हो जाते है बच्चों के मनोरंजन के सबसे सुगम तथा सुलभ साधन है ये खिलोने खिलौना हर वर्ग हर समुदाय के बच्चों के लिए होता है लेकिन एक सवाल जो मेरे मन में हमेशा कौंधता रहता है की खिलौने मनोरंजन मात्र के साधन है तो लड़को के लिए अलग तथा लड़कियों के लिए अलग खिलोने क्यों ? अमूमन लड़कों लिए उग्रता के प्रतिक वाले खिलौने तथा लड़कियों लिए सौम्यता के प्रतिक वाले खिलौने क्यों निर्धारित किये है। हम खुद से ही ये धारणा लेते है की लड़कियों के लिए गुड़िया घरेलु सामान वाले खिलोने तथा लड़कों के लिए बन्दुक मोटरबीके उपयुक्त है । क्या यह धारणा या मान्यता पक्षपात पूर्ण नहीं है ? क्या यह मान्यता पुरुष प्रधान समाज को दर्शाती है ?खिलौने भेद भाव तो यही दर्शाता है की लड़कियां कमजोर शर्मीली या नाजुक है उन्हें हलके काम करना घर सम्भालना पसंद होता है। दूसरी ओर लड़कें कठिन काम करने वाले तथा ज्यादा मजबूत होते है। हमारी यह सोच शैशवावस्था में ही विभेद को जन्म देती है। एक तथा अनसुलझे सत्य को स्थापित करती है। शुरुआत में ही जब उनका मन होता है उसी समय से उन्हें यह ज्ञात करवाने की कवायद शुरू कर दी जाती है ।एन खिलोने के माध्यम से उनके बल मन में ये जटिलता पनपा जाती है की तुम लड़का और ये लड़की हो। तथा तुम्हारे मध्य एक गहरी रेखा है जो उनके तरुणावस्था आते आते और गहरी होती चली जाती है। बहुत से विचारकों का मत है की खिलौना केवल मनोरंजन का साधन मात्र नहीं होता है। बल्कि यह व्यक्तित्व के निर्माण की प्रक्रिया का एक अंग होता है। जिस तरह व्यक्तित्व के निर्माण में शुरूआती शिक्षा महत्वपूर्ण योगदान होता है उसी तरह खिलौना का भी अहम भूमिका होता है। लड़कियों जीवन पर ये खिलोने एक अमिट तथा व्यवहरात्मक प्रभाव डालते है। हम लोग सामान्यत यह देखते है की गुड़िया को छरहरा फिगर चटकदार साज श्रृंगार तथा आकर्षक कपड़ों में बनाया जाता है। इनकी आकृति को सौम्य नाजुक तथा हंसमुख बनाया जाता है। बच्चियां गुड़िया को ही दोस्त समझती साथ खेलती है उसका अनुसरण करने लगती है। धीरे धीरे गुड़ियों का ये हाव भाव श्रृंगार जीवन हिस्सा बनना शुरू हो जाती है। गुड़ियों की तरह उनके स्वाभाव में भी कोमलता आने लगती है। दूसरी ओर लड़के हमेशा बन्दुक बाइक जहाज खिलौने से खेलते है ।ये ऊर्जा तथा उग्रता के प्रतिक खिलौने लड़कों के मनःस्थिति धीरे धीरे ऐसी रूप में विकसित करवाता है। मई यह पूछना चाहता हूँ की क्या बच्चे खिलौने खुद निर्धारित करते है? नहीं हम उन्हें देते है। हमें बालिकाओं के हाथों गुड़िया या किचेन सेट ही ज्यादा तर्कसंगत लगता हम उन्हें भी मोटर बाइक या बन्दुक नहीं दे सकते? दे सकते है पर हमारे अंदर ये लिंग भेद शुरू से ही हावी है। आज स्थिति रही थोड़ी संतुष्टि तो मिलती है पर दिमाग में फिर उठता है की अन्य कारकों के साथ साथ खिलौने लड़की के पैदा होने के साथ उसमे भेद भाव देखने लगता है। उसी समय से उसे कमजोर निसहाय नाजुक डरपोक तथा घर तक सिमित रहने वाली अबला के रूप में चिन्हित करने लगता है। मई ये नहीं कहता की ये साजिश या कुरीति बस अनजाने में किया गया भूल है । लाडले अगर कुलदीपक है तो ललनाएँ उसकी लौ से काम नहीं है। भेद भाव क्यों? अगर ये आगे आएंगी तभी एक उन्नत तथा परिभासित समाज और राष्ट्र का निर्माण हो पायेगा ।
Monday, 20 October 2014
स्त्री पुरुष असमानता का खेल
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment