कबीर ने न कभी कलम दवात पकड़ी न कागज को । उनके ज़माने में बड़ा भेद - भाव था। गरीब बालक को कौन पंडित पढता ? न उनको पाठशाला की अनुमति थी न स्याही कलम - कागज की। सरकंडे की कलम बना भी लेते तो कागज़ कहाँ से लाते ? कागज़ तो बेहद कीमती था। चलिए कबीर को तो गरीबी व् भेदभाव ने वंचित किया लेकिन आजकल के मेट्रो युवाओं को कागज़ - कलम से किसने वंचित किया ?कभी दस्तखत करने की मजबूरी हुई तो कलम मांगते फिरते है।
कबीर तो मजबूरी में कागज़ कलम नही छू पाए और युवा "ऑनलाइन है " इसलिये छूने की ज़रुरत नही समझते। आजकल सब कुछ " लैपटॉपमई " हुआ जा रहा है। मै जब भी युवाओं को आते जाते देखती हूँ तो पाती हूँ कि उनकी पीठ पर जो बैकपैक लदा है उसमे या तो "लैपटॉप "है या " आईपैड"। एक आईपैड मे सैकड़ों किताबें है , और लैपटॉप का तो कहना ही क्या - वही कलम है , वही स्याही है , वही कागज़ , वही किताब और वही शब्दकोष। गरीबी रेखा के आसपास वाले बच्चे कागज़ कलम चलाते हो तो चलाते हो पर पब्लिक स्कूली तो सब लैपटॉपमई हो गए है। पहली दूसरी कक्षा मे कलम कॉपी से अक्षर का ज्ञान हो जाये तो ठीक है उसके बाद " स्मार्टफोन " या "लैपटॉप" का कीबोर्ड ही कागज़ कलम बन जाता है। पढ़े लिखे आदमी की पहचान उसकी जेब मे पेन से होती थी , अब किसी युवा के पास पेन तक नहीं होता। अब तो सारी लिखी पढ़ी ऑनलाइन है - मेसेज से , चाट से , या ट्वीट से। कलम की ज़रूरत कहाँ? कलम से रहित पढ़ा लिखा आदमी अपने आप में व्यंग्य लगता है।
Its good Salvi
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