Friday, 30 September 2016

फैलते शहर में गुम होते खेल के मैदान

दिल्ली जो की एक राष्ट्रीय राजधानी है। यहां के जिन अर्बन विलेज यानी शहरी गाँव से कभी खेल प्रतिभाएं उभरती थी वहां पर अब  खेलने की जगह ही नहीं बची है।  शहरों  महानगरों  में कारों  की बढ़ती  संख्या  के चलते आसपास  के पार्कों की  दीवारों को आपसी सहमति से तोड़कर उसे पार्किंग स्पेस में  तब्दील करने की ख़बरें आये दिन आती रहती है। कई जगहों पर प्रार्थना स्थल  आदि का निर्माण  करने का सिलसिला अब कुछ ज़्यादा  तेज़ होता जा रहा है।  दिल्ली के बारे में  अनुमान यह है की शहर मे  लगबग  दस फीसदी भूमि सिर्फ पार्किंग के लिए इस्तेमाल  हो रही है।  बच्चों को खेलने के लिये मैदान और दौड़ने - भागने के लिये शहर के खली स्थान न मिले तो  इसका असर उनके मानसिक और शारीरिक स्वस्थ्य पर  पड़ता है।  ब्रिटैन की चीफ मेडिकल रिपोर्ट में  बताया गया है कि  बच्चों में  सूखा रोग यानी रिकेट्स (RICKETS)की बीमारी  ने वापसी की है।  रिपोर्ट में यह भी  बताया गया की २५ फीसदी से भी अधिक बच्चों में  विटामिन डी ( VITAMIN D ) की कमि  पाई  जाती।  यही नहीं रोज़ाना खेल न खेल पाने की वजह से  बच्चों में  ओबेसिटी जैसी  बिमारी भी बढ़ने लग गयी है । आज के युग  मैं जहाँ गेमिंग  गैजेट्स ने अपनी जगह बना ली है वही दूसरी और खेलों का महत्त्व कम होता दिखाई दे रहा है।  ऐसे मे  खेल के मैदानों  का कम होना राष्ट्र के लिये नुकसानदायक सिद्ध हो रहा है। इस विषय पर ध्यान नही दिया गया तो वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर  नहीं खेल  पाएंगे। ऐसा ही कुछ परिणाम हम हाल ही में हुए रियो ओलंपिक्स  में  देख सकते है जिसमे  खिलाड़ियो का प्रदर्शन  काफी ख़राब रहा है। भारतीय खिलाडी अपना पूरा प्रदर्शन  करने में पीछे रह गए है। इस वक्त समय की आवश्यकता है कि बच्चे जो भारत के  खेल का भविष्य है उनके लिये  खली मैदान और  स्थलों की व्यवस्था कराइ जाये।  साथ ही खेल के कोच की भी नियुक्ति कराइ ताकि  छोटी आयु से ही वह खेल के अवसर प्राप्त कर सके। क्योंकि हमारे देश में  प्रतिभा कि कमी नहीं है बस स ज़रूरी  है इन प्रतिभाओं को सही अवसर की देने की। यह तभी संभव  है जब शहरों  मैं बड़े -  बड़े पार्किंग स्पेस की जगह खेल के मैदानों का निर्माण कराया जाये।

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