Friday, 19 September 2014

वीर

        वीर
उठो उठो हे वीर तुम
ये धरा तुम्हे पुकारती
रोटी बिलखती इस भीड़ से
बस पुकारती पुकारती
फूलों की शैय्या छोड़ दो
प्रेम परिहास का ना मोल दो
लहूलुहान हुआ धरा
वो रोती और चित्कारती
रक्तबीज की फ़ौज है
असुर समाज की मौज है
बेबस हुयी ये धरा माँ
अपने वीर पुत्रों को
जागती दुलारती फिर निहारती
कृष्णा की थी धरती यह
बॊध की तपस्थली यह
राम थे विचार में
मर्यादा में समाज में
कहानियां बन गयी है यह
भूत में इतिहस में
धरनी तो अब तुझमे बस
कल्कि को निहारती
कल्कि नाम को ही बस
पुकारती पुकारती
उठो उठो हे वीर तुम
ये धरा तुम्हे पुकारती

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