लेखन के क्षेत्र में महिलाएं तेजी से आगे आई हैं, और आ रही हैं. लिख रही हैं. कलम तोड़कर लिख रही हैं. वर्जनाएं तोड़कर लिख रही हैं. लाज आउटडेटेड शब्द हो गया है, लजा नहीं लजवा रही हैं. लिख क्या ललकार रही हैं. लहका रही हैं. धू धू कर जल रही हैं, रूढि़वादी सोच. जल रहे हैं जंगली मानसिकता वाले घास. जल रही हैं स्त्रियों को घूरने वाली गंदी आंखें. जी हां, भारतीय महिलाओं की तेज लेखनी की धार से सब्जियों की तरह कटते जा रहे हैं, तमाम पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक बंधन. स्त्री मुक्त हो गई है, दिल से, दिमाग से, और देह से भी. स्त्री मुक्ति के बोल समूचे दिग दिगंत में सुनाई पड़ रहे हैं. फिर भी हम इन आवाजों को ठीक से नहीं जानते.
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