Wednesday, 12 October 2016

अलगाववाद की आड़ में धधकता कश्मीर - 1
                                                   


रुपेश रंजन मिश्र बिहारी’'

''स्वर्ग का एहसास दिलाने वाला कश्मीर आज अलगाववाद की आड़ में नित्य दिन धधक रहा है। कश्मीर घाटी की समस्या से पूरा विश्व चिंतित है। घाटी की आवाम  परेशान हैं..सौ - सौ दिनों तक लोग घरों में कैद रहते हैं, शिक्षा, स्वास्थ की समस्या का हाल बदहाल है। घाटी की समस्या का उत्तर खोजता मेरा आलेख।''


घाटी में 8 जूलाई 2015 को हिजबुल आंतकी बुरहान वानी की मौत के बाद अचानक उपद्रव शुरु हो गया, जो अब तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस उपद्रव में अब तक 6600सौ से ज्यादा  जवान, 4200 सौ से ज्यादा कश्मीरी घायल हो चुके हैं। इस उपद्रव में कई जवानों, कई लोगों की भी, जानें भी जा चुकी हैं। रोज- ब- रोज कश्मीर घाटी में, उत्तर से लेकर दक्षिण तक सिर्फ अवगाववाद का सैलाव देखने को मिलता है। दिल्ली अमन- चैन की अपिल करती हैं, तो देश की आवाम संवाद की.. और कश्मीरी युवा सिर्फ अलगाववाद की। इस अलगाववाद की आड़ में कश्मीर ने ना सिर्फ अपनों को खोया हैं, बल्कि अरबों रुपयों की संपति को  भी भेट चढ़ा दिया। ना जानें कश्मीर की समस्या का पुख्ता हल कब निकलेगा ? कश्मीर सदियों से अलगाववाद से ग्रस्त रहा है। सन् 1984 से लेकर 1990 तक का इतिहास का भला कौन भूल सकता हैं? बुरहान की मौत के बाद जिस तरीके से घाटी में अलगाववाद सुनगा है, ठीक उसी प्रकार ..फरवरी 1984 में भी घाटी का माहौल था। 3 फरवरी 1984 को बरमिंघम में तैनात भारतीय राजनयिक रवीन्द्र म्हात्रे को जम्मू कस्मीर लिब्रेशन आर्मी के कार्यकर्ताओं ने अपहरण कर लिया और 5 फरवरी को उनकी नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी। इसके 6 दिन बाद जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के संस्थापक अध्यक्ष को, सत्रह साल पहले हत्या करने के अपराध में दिल्ली के तिहार जेल में फांसी की सजा दी गयी थी। इस घटना ने तब भी घाटी को वर्षों तक अलगाववाद में धधकाया था। उस वक्त कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन थे।  इसके बाद अनेक घटनायें घटती रही..। 5 जूलाई 1983 को इकबाल पार्क में, राज्य विधानसभा चुनाव के दौरान, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जनसभा में लोगों ने निर्वस्त्र होकर विरोध किया।  इस विरोधाभास के कारण घाटी में तनाव व्यक्त हो गया तथा 15 फरवरी 1984 को कांग्रेस पार्टी के चार सम्रथकों की पुलिस की फायरिंग में मौत हो गई। उस वक्त भी 2016 के तरह तनाव व्यक्त था। ना तो सरकार तब समाधान निकाल पाई, ना ही आज.. निकाल पा रही है? अगर की भारत चौहद्दी में बात करें तो सबसे ज्यादा शहीद सैनिकों का आकड़ा सिर्फ घाटी से मिलता है। उतना ही यहॉ से कश्मीरी आवामों  की जान जाने का आकाड़ा हैं। कश्मीर में अलगाववाद का उदय तो बहुत पहले हो चुका था परंतु इस बार अलगाववाद एक के बाद एक घटनाओं पे उदय होता जा रहा है। अमरनाथ श्राइन  बोर्ड को दी जाने वाली भूमि का मसला(2008) का हो या शोपियां बलात्कार (2009), तुफैल मट्टू की सैन्य गोलीबारी में मौत (2010) का मुद्दा हर बार कश्मीर घाटी में तुफान देखने को मिला हैं। इस तुफान में घी डाल रहा है पाकिस्तान। पाक के कथानुसार कश्मीर पाक का है। घाटी में बुरहान के मौत के बाद पाक ने घाटी में अशांति का घोल ..घोल दिया है। जिसके कारण कश्मीर में कुछ नेताओं के मदद से अलगाववाद का, एक बार फिर से उदयकरण हुआ है। कश्मीर में समयानुसार देश विरोधी गतिविधि देखने को मिलते है। अक्सर पाक के झंडे को लहराना व इस्लामिक स्टेट जैसे आंतकवादी संगठन के नारे घाटी में आमफहम होने लगे हैं। अलगाववादियों के माहौल को काबू करने के लिए सरकार ने पेलेट गन का प्रयोग किया। जो कहीं ना कहीं मानवता को तो खत्म कर ही दिया पर सेना के सामने उस वक्त क्या उपाय हो सकता है? क्या सेना के जवान सदियों के तरह इन देश द्रोहियों के आड़ में अपना जान गंवाते रहें? सेना और सरकार ने सदैव शांति का हर बार आयाम पेश करता आया है, परंतु शांति का पैगाम कभी घाटी में सफल नहीं हुआ ।


   कश्मीर की  समस्या : कश्मीर किसका 

दरअसल 1947 से पहले कश्मीर स्वतंत्र रिहासत थी। जिस पर डोगरा राजपूत राजा हरि सिंह का शासन था। संचार, रक्षा, विदेश नीति के मामले में कश्मीर अंग्रजों के मातहत थी । घाटी की आबादी बहुसंख्यक मुस्लिम थी, पर राजा हिंदू। मांउटबेटन योजना के तहत भारत का विभाजन हुआ। देशी रिहासतों के शासकों को अपनी मर्जी से भारत - पाक में जाने का अधिकार प्राप्त था। लगभग 2,22,236 वर्ग किलोमीटर में फैला कश्मीर के लिए ये नियम समस्या बन गया। कश्मीर के लिए कोई उधोग तो था नहीं परंतु प्रकृतिक छटा के कारण पर्यटक यहॉ का अहम साधन था। जिससे यहॉ का जीकोपार्जन चलता था और चलता आया है। राजा हरि सिंह कश्मीर की छटा से मुग्ध थें, तथा कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने के साथ कश्मीर को स्विट्ज़रलैंड बनाना चाहते थे । ये उनका व्यक्तिगत ख्ब़ाब भी था। अपने ख्ब़ाबों को पुरा करने के लिए राजा हरिसिंह ने माउंटबेटन योजना के तहत अपनी अर्जी पेश नहीं किया था। राजा हरि सिंह ने दोनों मुल्कों के बीच यथास्थिति समझौता पेश किया। जिसका तहत दोनों मुल्कों के कार्यानुसार आना- जाना सह आवश्यक वस्तुओं का आदान- प्रदान किया जा सकता था। हक़िकत में पाक ने इस प्रस्ताव पर  मुहर लगा दिया परंतु भारत ने प्रतिक्षा करने का फैसला लिया और किया भी । अमूमन समयानुसार हालत बिगड़ने लगी  तथा कश्मीर के उपर पाक अत्याचार करने लगा। यह बात तो साफ थी कि कश्मीर की सम्राज्य शक्ति एक हिंदू शासक के हाथों में थी। जो पाकिस्तान के लिए चिंता का सबक था। जिसके कारण पाक आवश्यक वस्तुओं की आर्पूति को रोककर कश्मीर पर दबाब बनाना शुरु कर दिया । शुरुआती दौर में घटित घटनाओं से यानी कश्मीर को पाक के साथ जाना.. इस सब से सरदार पटेल जी को कोई एतराज नहीं थी बल्कि जूनागढ़ के कारगुजारी से सरदार का मिजाज़ बदल गया फिर भी भारत ने कश्मीर को भारत में विलय के लिए कोई पहल नहीं की। जो कश्मीर के आवामों के माथें पर काली चिंता साफ - साफ झलक रहीं थी।  ब्रिटिस रेजीडेंट से लेकर वायसराय मांउटबेटन तक कश्मीर को दोनों में से किसी में भी अपना विलय स्वेच्छा से कर लने के लिए अपना सुक्षाव दे चुके थें। राजा हरि सिंह अपने विचार पर कायम रहा। उनके लिए किसी का कोई सुझाव काम नहीं आया। महराजा के ख्बाब़ों ने  निर्णय नहीं लेने दिया। जिसके कारण पाक को एक मौका मिल गया कि कश्मीर पर हमला कर दे। यहीं से कश्मीर समस्या का बीजारोपण शुरु हुआ जो आज भी कायम है। अगर गौर से देखें तो महराजा हरिसिंह के महत्वकांक्षी होना इन सब कारणों का दोष रहा परंतु ये कहना भी सही नहीं होगा, क्योंकि भू- आबद्ध देश तो उस वक्त में काफी थे। आकड़ों को देखें तो सन् 1947 में कुल मिलाकर कश्मीर के साथ 23 ऐसे देश थे परंतु आज तो 41 हो गए हैं। 41 देश आज भी जीवित हैं। हॉ ! कश्मीर की समस्या इन सब से अलग थी और है, इसी कारण  महराजा हरि सिंह को चूक हुई जो आज कश्मीर की समस्या व्याप्त है।
भारत का कश्मीर पे राज क्यों ?
(शेष अगले अंक में ...आलेख जारी है।)

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