Friday, 30 January 2015
Saturday, 24 January 2015
Friday, 23 January 2015
बहस क्यों नही होनी चहिए?
ट्वीटर पर जबसे अरविंद केजरीवाल ने किरन बेदी को चुनावी मौसम में बहस के लिए ललकारा और बेदी ने यह कह कर पल्ल छाड़ लिया कि वह विधान सभा में बहस करेंगी तबसे केजरीवाल के ट्वीट से उठे हंगामे से जहां सोशल मीडिया पर चुनावी चक्कलस करने वाले मजा लेने लगे हैं,वही राजनीति में दखल रखने वालों के बीच चर्चा तेज हो गई की क्या वाकई बहस होनी चाहिए। अगर दलों के आपसी आरोपों-प्रत्यारोपों और एक-दूसरे पर राजनैतिक आक्षेप लगाने से इतर देखा जाये तो सवाल यह उठता है कि आखिर बहस क्यों न हो।
सबसे बड़ी बात यह है कि यह बहस की बात देश की राजधानी के विधान सभा के दौरान उठी है। तो अब सवाल यह आता है कि दिल्ली एक साक्षर राज्य है साथ ही देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में प्रधानमंत्री से लेकर सभी विभागों के दफतर हैं जहां पर निचले स्तर से लेकर कैबिनेट सचिव तक सभी बाबू बैठते हैं। अगर बहस होगी तो हम इस राजनीति को नए सिरे से देख सकेंगे। नेतृत्व की तार्कित और बौद्धिक क्षमता को परख सकेंगे।
यह लोकतंत्र के लिए एक नये अध्याय के लिखे जाने का मौका होगा। अगर अब बहस नहीं हो सकती तो कब होगी और कहां। इतनी उम्मीद व मांग तो जनता की बनती ही है। अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी दोनों एक अलग गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं। दोनों आज की राजनीतिक प्रणाली के आलोचक रहे हैं। यह सही है कि दांव अरविंद का है तो किरण स्वीकार करने में हिचकेंगी, लेकिन राजनीति में यह कोई बड़ी बात नहीं है। किरण बेदी भी स्वीकार कर केजरीवाल को मात दे सकती हैं। जब विधानसभा में आमने-सामने हो सकती हैं तो विधान सभा में जाने से पहले क्यों नहीं और यह कोई आवश्यक तो नही ं की चुनावी मौसम में जहां किरन बेदी को जो मौका भाजपा ने दिया है वो मौका दिल्ली की जनता भी उन्हें देगी ही । फिर भी किरण बेदी का यह कहना कि बहस सिर्फ विधानसभा के भीतर होती है, सही नहीं है। लोकतंत्र में असली बहस जनता के बीच होती है। जनता के आमने-सामने होती है, एक दूसरे की तरफ पीठ करके चुनौती देने से ही लोकतंत्र महान नहीं हो जाता। आमने-सामने आकर उसका और विस्तार होता है।
कांग्रेस के अजय माकन इस मांग को एक मौका देखते हुए बहस में शामिल होने को तैयार दिखे। माकन ने कहा कि ऐसी बहस से विभिन्न दलों के नेताओं को कठिन सवालों के जवाब देकर अपना पक्ष जनता के सामने रखने का मौका मिलेगा। इससे पहले उन्होंने ट्वीट कर कहा कि बहस से दिल्ली की जनता को तुलनात्मक आकलन करने का मौका भी मिलेगा।
जहां किरन बेदी अब बहस से बच रही है वही बेदी बहस के पक्ष में थी । इस की बानगी कुमार विश्वास ने किरण बेदी का एक पुराना ट्वीट निकाल कर ट्वीट पर दी है। किरण बेदी ने ओबामा और रूमनी की बहस देखते हुए ट्वीट किया था और कहा था कि बहस देखने से मत चूकिये।
केजरीवाल ने भी किसी रणनीति के तहत ही चुनौती दी होगी। इसी बहाने आज टीवी और सोशल मीडिया का स्पेस उनके नाम हो सकता है। पर यह सच है कि हमारे देश में चुनाव टीवी और ट्वीटर में ढलता जा रहा है। सब कुछ टीवी के लिए हो रहा है। टीवी के लिए ही दिखने वाला चेहरा लाया जाता है, नहीं दिखने लायक चेहरा राजनीति में पचास साल लगाकर भी रातों रात गायब कर दिया जाता है। इस
सबसे बड़ी बात यह है कि यह बहस की बात देश की राजधानी के विधान सभा के दौरान उठी है। तो अब सवाल यह आता है कि दिल्ली एक साक्षर राज्य है साथ ही देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में प्रधानमंत्री से लेकर सभी विभागों के दफतर हैं जहां पर निचले स्तर से लेकर कैबिनेट सचिव तक सभी बाबू बैठते हैं। अगर बहस होगी तो हम इस राजनीति को नए सिरे से देख सकेंगे। नेतृत्व की तार्कित और बौद्धिक क्षमता को परख सकेंगे।
यह लोकतंत्र के लिए एक नये अध्याय के लिखे जाने का मौका होगा। अगर अब बहस नहीं हो सकती तो कब होगी और कहां। इतनी उम्मीद व मांग तो जनता की बनती ही है। अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी दोनों एक अलग गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं। दोनों आज की राजनीतिक प्रणाली के आलोचक रहे हैं। यह सही है कि दांव अरविंद का है तो किरण स्वीकार करने में हिचकेंगी, लेकिन राजनीति में यह कोई बड़ी बात नहीं है। किरण बेदी भी स्वीकार कर केजरीवाल को मात दे सकती हैं। जब विधानसभा में आमने-सामने हो सकती हैं तो विधान सभा में जाने से पहले क्यों नहीं और यह कोई आवश्यक तो नही ं की चुनावी मौसम में जहां किरन बेदी को जो मौका भाजपा ने दिया है वो मौका दिल्ली की जनता भी उन्हें देगी ही । फिर भी किरण बेदी का यह कहना कि बहस सिर्फ विधानसभा के भीतर होती है, सही नहीं है। लोकतंत्र में असली बहस जनता के बीच होती है। जनता के आमने-सामने होती है, एक दूसरे की तरफ पीठ करके चुनौती देने से ही लोकतंत्र महान नहीं हो जाता। आमने-सामने आकर उसका और विस्तार होता है।
कांग्रेस के अजय माकन इस मांग को एक मौका देखते हुए बहस में शामिल होने को तैयार दिखे। माकन ने कहा कि ऐसी बहस से विभिन्न दलों के नेताओं को कठिन सवालों के जवाब देकर अपना पक्ष जनता के सामने रखने का मौका मिलेगा। इससे पहले उन्होंने ट्वीट कर कहा कि बहस से दिल्ली की जनता को तुलनात्मक आकलन करने का मौका भी मिलेगा।
जहां किरन बेदी अब बहस से बच रही है वही बेदी बहस के पक्ष में थी । इस की बानगी कुमार विश्वास ने किरण बेदी का एक पुराना ट्वीट निकाल कर ट्वीट पर दी है। किरण बेदी ने ओबामा और रूमनी की बहस देखते हुए ट्वीट किया था और कहा था कि बहस देखने से मत चूकिये।
केजरीवाल ने भी किसी रणनीति के तहत ही चुनौती दी होगी। इसी बहाने आज टीवी और सोशल मीडिया का स्पेस उनके नाम हो सकता है। पर यह सच है कि हमारे देश में चुनाव टीवी और ट्वीटर में ढलता जा रहा है। सब कुछ टीवी के लिए हो रहा है। टीवी के लिए ही दिखने वाला चेहरा लाया जाता है, नहीं दिखने लायक चेहरा राजनीति में पचास साल लगाकर भी रातों रात गायब कर दिया जाता है। इस
जीते तो हर हर मोदी हारे तो किरन बेदी
हाल के दिनों में भारतीय जनता पार्टी जहां-जहां चुनाव जीती, वहां उसने मोदी के चहेते और संघ-स्वीकृत नेताओं को ही कुर्सी पर बैठाया। महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में भाजपा के मुकाबले में कोई ईमानदार छवि की भरोसेमंद पार्टी नहीं थी। साथ ही सत्ता विरोधी रुझान भी भाजपा के पक्ष में गया। लेकिन दिल्ली की राजनीति अलग है और दिल्ली विजय मे भारतीय जनता पार्टी की अनाम मुख्यमंत्री वाली चाल कामयाब नहीं हो पाती । यह स्पष्ट है कि अगर केजरीवाल और उनकी पार्टी मुकाबले में न होते तो भाजपा अपने वरिष्ठों को दरकिनार कर किरण बेदी को शामिल कभी नहीं करती। भाजपा आलाकमान इस बात को भली भांति समझता है कि दिल्ली में केजरीवाल और उनकी पार्टी ही उनके लिए एकमात्र चुनौती हैं।
दिल्ली की राजनीति के समीकरणों के इन्हीं आंकड़ों को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी के थ्ािंक टैंको ने बिना समया निकाले, अपनी 49 दिनों की सरकार में बिजली-पानी सस्ता करने वाली आम आदमी पार्टी के मजबूत प्रतिद्वंद्वी अरविंद केजरीवाल के सामने चुनाव से पहले शून्य राजनीतिक अनुभव वाली देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी को पार्टी में शामिल किया। इसका मतलब साफ है कि भाजपा के पास केजरीवाल के मुकाबले कोई चेहरा नहीं था, जो उनकी लोकप्रियता और छवि से टक्कर ले सके।
वहीं हाल के दिनों मेंं आए चुनवी सर्वेक्षणों ने भी भाजपा की चिन्ता को बड़ा दिया। जिसमें अरविंद केजरीवाल को दिल्ली का पसंदीदा मुख्यमंत्री बताया जा रहा था। वहीं बाहरी दिल्ली के ग्रामीण इलाको और दलित बहुल क्षेत्रों में आप को प्रभाव आप की मजूबत पकड़ को दर्शाता है। लिहाजा भाजपा को एक ऐसे चेहरे की आवश्यकता थी जो अरविंद केजरीवाल का सीधे टक्कर दे सके साथ ही आम जनता के बीच में भाजपा का ईमानदार छवि वाला चेहरा बन सके। अत: भाजपा ने बिना कोई देर किये राजनीति में आने को आतुर पूर्व आईपीएस किरन बेदी को दिल्ली जनता के सामने मुख्यमंत्री के रूप में खड़ा कर दिया।
भाजपा के इस कदम पर सवाल जरूर उठे की भाजपा ने एक ऐसे व्यक्ति को पार्टी का चेहरा क्यों बना जो पूर्व में बीजेपी की आलोचक रही हैं। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि यह वही किरण बेदी है जो भाजपा से उसकी फंडिंग और गुजरात दंगों के संबंध में नरेंद्र मोदी से ट्विटर पर सफाई भी मांग चुकी हैं। लेकिन इसी को तो राजनीति कहते हैं और कहा भी गया है, रण में दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है,और इस चुनावी रण को जीतने के लिए ही भाजपा ने किरण बेदी से न सिर्फ पुराने गिले भुला दिए हैं, बल्कि दिल्ली में हर हाल में विधानसभा में पहुंचने के लिए अपने पुराने व वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी भी मोल ले ली है।
साथ ही किरण बेदी को पार्टी में शामिल कर भाजपा ने अपने लिए एक और दरवाजा खोल लिया है,अगर भाजपा पिछले चुनावों की तरह इन चुनावों मे बहुमत न ले पायी तो भाजपा के प्रवक्ता अपने चुनावी बाजीगर अमित शाह और मोदी की जादूई लहर को हार की जिम्मेदारी से साफ बचा सकते हैं। यानी की साफ है कि अगर भाजपा दिल्ली फतह करती है तो जीत का सिरमोर होगी मोदी लहर और अमित शाह का नेतृत्व, और हारी तो अब कहने की जरूरत नही हार का ठीकरा फूटेगा किरण बेदी के मत्थे।
Monday, 19 January 2015
Attention all students 2014
Submit your internship certificate by end of February ( no matter whether you have given your presentation or not) and submit as soon as your and activity and Blog attendance otherwise you have to take re admission.
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