Thursday, 30 August 2012

कोयले की बंदरबांट का पर्दाफाश करते आठ खुलासे

सौजन्य से: 
प्रभंजन वर्मा, आईबीएन-7



नई दिल्ली। 

कोयले की कालिख के पीछे आखिर क्या है। सच्चाई छिपी है IBN7 की खास पड़ताल BLACK GOLD में। एनडीए और यूपीए सरकारों के दौर में कई ऐसी कंपनियों को कोयला खदानें बांट दी गईं जिन्होंने सालों साल तक उन्हें छुआ तक नहीं। उल्टे कई कंपनियों ने तो इन खदानों को बेच कर मोटी कमाई की। सीबीआई अब उन सौदों की जांच कर रही है। सूत्रों के मुताबिक कोयले की कालिख में 17 कंपनियां घिरी हुई हैं। IBN7 को अपनी पड़ताल में 8 ऐसे मामले मिले जिसमें उन कंपनियों को कोयला खदाने बांटी गई जो सालों तक खदान पर कुंडली मार कर बैठी रही और बाद में बिक गईं। सीबीआई अब ये जांच कर रही है कि आखिर इस फॉर्मूले से कंपनियों को कितना फायदा हुआ। खास बात ये है कि इन कंपनियों को जरूरत से कहीं ज्यादा बड़ी कोयला खदान दी गईं। सवाल ये है कंपनियों को बैठे बिठाए मोटी कमाई करने का मौका दिया गया।

पहला खुलासाः पुष्प स्टील और माइनिंग कंपनी

20 जुलाई 2010 को दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि इस कंपनी का गठन 2 जून 2004 को हुआ। और इसी दिन दिल्ली से हजार किलोमीटर दूर कांकेर में इस कंपनी ने कच्चे लोहे की खदान के लिए आवेदन भी कर दिया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि ये कैसे संभव है। आवेदन में न तो तारीख लिखी गई और ना ही कंपनी से जुड़े कोई कागजात लगाए गए। जबकि नियमों के मुताबिक आवेदन करने वाली कंपनी को पिछले साल के इनकम टैक्स रिटर्न की कॉपी लगानी जरुरी है।
कोर्ट ने ये भी कहा कि आवंटन की शर्तों में साफ है कि कोयला खदान उसी कंपनी को मिलनी चाहिए जिसके पास माइनिंग का अनुभव हो। लेकिन ना तो पुष्प के पास खनन का कोई अनुभव था और ना ही कंपनी की माली हालत इतने बड़े प्रोजेक्ट के काबिल थी। आवेदन करते वक्त कंपनी का पेड अप कैपिटल सिर्फ 1 लाख रुपए था। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कंपनी की मंशा सिर्फ आयरन और कोल ब्लॉक हासिल कर उससे मोटा मुनाफा कमाने की थी?
पुष्प स्टील ने 2004 में छत्तीसगढ़ सरकार के साथ 384 करोड़ रुपए के निवेश का करार किया। ये करार स्पांज आयरन प्लांट बनाने के लिए था। इसके लिए कंपनी ने 11 हेक्टेयर जमीन खरीदी और चीन की एक कंपनी को मशीनरी के लिए 22 लाख रुपए का एडवांस दिया। जी हां 384 करोड़ के प्लांट की मशीनरी के लिए 22 लाख रुपए का एडवांस। कंपनी का कुल निवेश 1 करोड़ 20 लाख था। लेकिन इसी आधार पर छत्तीसगढ़ सरकार ने 2005 में कंपनी को कच्चे लोहे के लिए माइनिंग लीज और प्रोस्पेक्टिव लीज दे दी।
इसके बाद कंपनी ने कोयला खदान के लिए आवेदन किया और उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने 2007 में 550 लाख टन कोयले वाला ब्रह्मपुरी ब्लॉक दे दिया। ये बताना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश दोनों जगह बीजेपी की सरकार थी। एक ऐसी कंपनी को सैकड़ों एकड़ की खदान दे दी गई जो दरअसल छोटी सी ट्रेडिंग फर्म थी। कंपनी ने अभी तक खनन का काम शुरू भी नहीं किया है।


दूसरा खुलासा - सवालों के घेरे में धारीवाल ग्रुप

कोयले का खेल कुछ ऐसा था कि गुटखा बनाने वाली कंपनी धारीवाल ग्रुप को भी कोयला खदान मिल गई। धारीवाल इंफ्रा नाम की कंपनी ने स्पांज आयरन प्लांट लगाने के लिए जमीन खरीदी और इसी आधार पर उसे 22 नवंबर 2008 को गोड़खरी कोयला ब्लॉक दे दिया गया। लेकिन 7 महीने के भीतर ही 240 लाख टन का ब्लॉक रखने वाली धारीवाल इंफ्रा ही बिक गई। इसे गोयनका ग्रुप की कंपनी
CESC ने करीब 300 करोड़ रुपए में खरीदा। मजे की बात ये है कि CESC एक बिजली कंपनी है। यानी स्टील के लिए दी गई कोयला खदान पॉवर कंपनी के हिस्से चली गई। और सरकार तमाशा देखती रही। अपनी सफाई में धारीवाल ग्रुप ने सिर्फ इतना कहा कि माइनिंग लीज मंजूर नहीं हो पाई है और भूमि अधिग्रहण में भी दिक्कत आ रही है।


तीसरा खुलासा - नवभारत ग्रुप

विस्फोटक बनाने वाली कंपनी जिसे 13 जनवरी 2006 को स्पांज आयरन प्लांट लगाने के लिए मदनपुर नॉर्थ कोयला खदान दे दी गई। खुद का प्लांट न होने की वजह से नवभारत ने अपनी सहयोगी कंपनी के प्लांट के आधार पर आवेदन किया था।
उस प्लांट की क्षमता सालाना 3 लाख टन स्पांज आयरन के उत्पादन की थी। यानी हर साल कंपनी को तकरीबन 5 लाख टन कोयला की जरूरत थी। लेकिन सरकार ने उसे जो खदान दी - उसमें 3 करोड़ 60 लाख टन कोयला है। कुछ साल खदान पर कुंडली मार कर बैठने के बाद नवभारत ने अपनी कंपनी का 74 फीसदी शेयर किसी और को बेच दिया। यानी पूरी कंपनी ही बेच डाली गई। यानि कोयला बेचा किसी को लेकिन गया किसी और की झोली में।


चौथा खुलासा - फील्ड माइनिंग एंड इस्पात लिमिटेड

इस कंपनी को 8 अक्टूबर 2003 को दो कोयला खदानें - चिनोरा और वरोरा वेस्ट दी गईं। दोनों खदानों को मिलाकर कोयला उत्पादन की कुल क्षमता थी 380 लाख टन। फील्ड माइनिंग की प्रोजेक्ट रिपोर्ट के मुताबिक उन्हें सालाना 2 लाख 60 हज़ार टन कोयले की जरूरत थी। इस कंपनी ने 5 साल यानी 2008 तक खदान पर कोई काम शुरू नहीं किया। उसने स्क्रीनिंग कमेटी के सामने कहा कि वो जल्द ही स्टील प्लांट खरीदने वाली है। आखिर 2010 में फील्ड माइनिंग एंड इस्पात लिमिटेड को
KSK एनर्जी वेन्चर्स ने खरीद लिया। KSK वर्धा में 600 मेगावॉट का पॉवर प्लांट लगा रही है। अपनी सफाई में फील्ड माइनिंग एंड इस्पात लिमिटेड ने स्क्रीनिंग कमेटी को कहा कि उनकी कंपनी को लेकर कोर्ट का कोई फैसला आया है। इसलिए वो काम आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं।


पांचवां खुलासा - बी एस इस्पात

बी एस इस्पात- 25 अप्रैल 2001 को विदर्भ की मरकी मंगली कोयला खदान बीएस इस्पात को दी गई। उनके पास 60 हजार टन का स्पांज आयरन प्लांट था। लेकिन उन्हें भी जरूरत से कहीं ज्यादा 343 लाख टन कोयले वाली खदान दे दी गई। उनकी जरूरत सालाना 1 लाख टन कोयला से ज्यादा नहीं थी। ये कंपनी 8 साल तक इस खदान पर यूं ही बैठी रही। 8 साल बाद कंपनी ने पर्यावारण क्लीयरेंस लेते वक्त कहा कि वो अपने प्लांट की क्षमता बढ़ाकर 1 लाख 84 हजार टन प्रति वर्ष करना चाहती है जिसके लिए उसे अब 3 लाख टन कोयले की सालाना जरुरत होगी। जानकारों का कहना है कि कंपनी ने जरूरत से कहीं बड़ी कोयला खदान पर पर्दा डालने की कोशिश में ऐसा किया था। अपनी सफाई में बी एस इस्पात ने साल 2010 में स्क्रीनिंग कमेटी को भरोसा दिलाया कि वो सितंबर 2010 तक कोयला उत्पादन शुरू कर देगी। लेकिन इसके बाद कंपनी ही बिक गई।


छठा खुलासा - सवालों के घेरे में गोंडवाना इस्पात

बी एस इस्पात की ही एक और कंपनी गोंडवाना इस्पात को भी 2003 में माजरा ब्लॉक आवंटित किया गया। इनके प्लांट की क्षमता 1 लाख 20 हजार टन कोयले की थी लेकिन अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट में उन्होंने भी अपनी जरूरत 3 लाख टन प्रति वर्ष दिखाई। और कमाल देखिए उन्हें 315 लाख टन कोयले वाली खदान दे दी गई। यानि 100 साल तक की जरूरत आराम से पूरी। हम बता दें कि स्पॉन्ज आयरन प्लांट की औसत जिंदगी 30 साल की होती है। लेकिन अभी तक सबकुछ कागजों पर ही चल रहा था।
2008 में आकर गोंडवाना इस्पात का बी एस इस्पात में विलय हो गया। बाद में बीएस इस्पात को तीसरी कंपनी गरिमा बिल्डकॉर्प ने खरीद लिया और फिर 2011 में उसने ये कंपनी उड़ीसा सीमेंट लिमिटेड को बेच दी।
यानी न सिर्फ बी एस इस्पात ने खदान पर बैठने के बाद उसे मोटे मुनाफे में बेच दिया बल्कि खदान का एंड यूज भी बदल गया। फिर भी इन खदानों का आवंटन रद्द नहीं किया गया। आखिर क्यों? आखिर क्यों स्क्रीनिंग कमेटी और कोयला मंत्रालय सिर्फ कारण बताओ नोटिस जारी करते रहे। अपनी सफाई में गोंडवाना इस्पात ने कहा कि उनकी खदान का एक हिस्सा जंगल की जमीन पर पड़ता है इसलिए उन्हें वन विभाग की मंजूरी मिलने में दिक्कत आ रही है।


सातवां खुलासा - सवालों के घेरे में वीरांगना स्टील कंपनी

वीरांगना स्टील कंपनी- 2005 में मरकी मंगली नंबर 2,3,4 खदानें इस कंपनी को दी गईं। इनके पास एक पुराना 60 हजार टन का स्टील प्लांट था, उसके लिए जो खदानें दी गईं उनकी क्षमता थी 190 लाख टन। फिर भी कंपनी ने पांच साल तक खनन शुरू नहीं किया। आखिरकार 2010 में कंपनी का नाम बदल कर टॉपवर्थ हो गया। इसके बाद क्रेस्ट नाम की कंपनी ने उसे खरीद लिया। यानी ये कंपनी दो बार बिक चुकी है। जाहिर है नागपुर की इस छोटी सी कंपनी की बोली इसलिए लगी क्योंकि इसके पास बड़े कोल ब्लॉक थे।


आठवां खुलासा - सवालों के घेरे में वैद्यनाथ आयुर्वेद

आयुर्वेद उत्पाद बनाने वाली कंपनी वैद्यनाथ आयुर्वेद को भी 27 नवंबर 2003 में कोल ब्लॉक दिया गया। लेकिन 2010 तक भी ये कंपनी माइनिंग शुरू नहीं कर पाई। यहां तक कि स्क्रीनिंग कमेटी को ये कंपनी 2010 में भी ये भरोसा नहीं दिला पाई कि वो खुदाई कब शुरू करेगी और बिजली का उत्पादन कब शुरू होगा। 2011 में आकर आखिर 8 साल बाद स्क्रीनिंग कमेटी ने वैद्यनाथ को मिले कोल ब्लॉक को रद्द कर दिया। अपनी सफाई में वैद्यनाथ आयुर्वेद ने स्क्रीनिंग कमेटी को कहा कि माइनिंग प्लान को मंजूरी मिलने में देरी हो रही है क्योंकि कंपनी ने परियोजना का आकार बदल दिया है। साथ ही कंपनी में शेयर होल्डिंग पैटर्न भी बदल गया है।
उक्त आठ में से तीन मामले ऐसे हैं जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी। इसमें से दो मामले विदर्भ के हैं। इस दौरान महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार थी। यानी राज्य में कांग्रेस और केन्द्र में बीजेपी। ठीक वैसे ही जैसे 2004 के बाद केन्द्र में कांग्रेस और छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में बीजेपी की सरकार है। क्या ऐसे में दोनों पार्टियों को कोल ब्लॉक आवंटन पर राजनीति करने का अधिकार है।

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